खेल दिवस (हाँकी स्पेशल )
खेल दिवस की बात करते ही, आँखों के सामने बस एक ही चेहरा घूमता है-जिनका नाम है ध्यानचंद-हाँकी का जादूगर-जिन्होंने सही मायने में भारतीय हाँकी को दुनिया में एक नया नाम दिया। भारतीय खेलो में ध्यानचंद यानी दद्दा शख्सियत इतनी बड़ी है की हम उनके जन्म दिवस को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मानते है। हमारे खेलो की तस्वीर तो ज़रूर बदलती हुई दिख रही है, लेकिन वो खेल जिसे ध्यानचंद खेलते थे, जो कभी हमारी धडकनों में धड़कता था-बेहद बुरे हाल में है। इसको सुधरने के लिए हमे एक नए सिरे से प्रयत्न करने होंगे ताकि हम उसे वापस उस मुकाम पर ले जा सके जंहा ध्यानचंद इस खेल को ले कर गए थे।
लन्दन ओल्य्म्पिक के बाद जब भारतीय टीम जब स्वदेश लौटी तो उन्हें हवाई अड्डे के पिछले दरवाजे से बहार ले जाया गया। दिलचस्प बात यह है की उसी दिन ओल्य्म्पिक में रजत जीतने वाले सुशील कुमार और कांस्य जीतने वाले योगेश्वर भी लौटे थे। उन दोनों का एयरपोर्ट पर जोरदार तरीके स्वागत हुआ था। मैंने कभी सोचा नहीं था की ओल्य्म्पिक खेल इतिहास में आठ स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हाँकी टीम को अब पिछले दरवाजे की शरण लेनी पड़ेगी। लन्दन ओल्य्म्पिक से पहले सभी को बहुत बरोसा था, लेकिन वहा ऐसा लगा की मानो टीम ओल्य्म्पिक के लायक ही नहीं थी। पहले मैच में मजबूत होलैंड को टक्कर दी, लेकिन इसके बाद पिछड़ते और घिसटते चले गए और अंत में हमारा कारवा 12वे स्थान पे जा के रुका। ऐसा नहीं था की टीम में कोई अनुभव की कमी थी। कप्तान भरत छेत्री अब यह कह रहे है कि भारतीय टीम ओल्य्म्पिक में दूसरी टीमों की तुलना में बेहद कमजोर थी, लेकिन क्या इसका एहसास उन्हें ओल्य्म्पिक शुरु होने से पहले नहीं था। बहाने और भी बनाये जा रहे है।
लन्दन तो अब गुजर गया और रियो से पहले बहुत कुछ करना बाकी है, लेकिन अभी भी ज़मीनी स्तर पर किसी बड़े बदलाव की संभावना कही नज़र नहीं आती। अभी से रोड टू रियो की बाते होने लगी है, लेकिन भारतीय हाँकी अब एक ऐसी जगह आ गयी है जंहा से रिवाइवल आसान नहीं होगा।
हाँकी में भारत का भी एक दौर था जब अंग्रेज हमारे पीछे भगा करते थे लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे की आज हम उनके पीछे भाग रहे है और वो हमसे खेलना नहीं चाहते। हाँकी का उज्वल भविष्य तभी संभव है जब गहराई से चीजों को समझा जाये, और इसमें सबसे बड़ी बात है की खिलाडियों को एहसास कराना होगा कि वे देश के लिए खेल रहे है।
विदेशी कोच को टीम के साथ जोड़कर भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि आधे खिलाडियों को तो भाषाई दिक्कत है। वो कहते कुछ होंगे खिलाडी समझते कुछ होंगे। सभी विदेशी कोच चाहे वो ब्रासा हो या नोब्स कोई भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पता क्योंकि उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है। लन्दन ओल्य्म्पिक्स का टिकट दिलाने के बाद नोब्स से काफी उम्मीद बढ़ गयी थी। लेकिन ओल्य्म्पिक्स में भारतीय टीम की दुर्गति देखकर नोब्स का भी मन उखड गया। जब-जब विदेशी कोच को भारतीय हाँकी के भले के लिए बुलाया जाता है तब-तब हाँकी के धुरंधर खिलाडी इसका विरोध करते है। उनका मानना है की भारतीय हाँकी का भला भारतीय कोच ही कर सकता है। ये भी सच है की भारतीय कोच भी किसी मायने में कम नहीं है। इस बारे में सोचने की ज़रूरत है।
बी0पी0 गोविंदा (ओल्य्म्पियन, रास्ट्रीय चयनकर्ता) के अनुसार,
भले ही लाख बनाये जाये, हम हाँकी में बहुत पिछड़ गए है। इतना पिछड़ गए है कि न जाने कितना समय लगेगा। हाँकी की ये दशा 2-3 सालो मैं नहीं हुई है। हालत तो 1976 से ही ख़राब होनी शुरू हुई थी। जब हाँकी घास से एस्ट्रोटर्फ पर पहुची थी। उस समय भारत में एक भी एस्ट्रोटर्फ नहीं था। भारत में एस्ट्रोटर्फ लगना और उस पर ट्रेनिंग करने में इतना वक़्त लग गया की यूरोपीय आगे हो गए। यह फैसला साल दर साल बढ़ता गया। एस्ट्रोटर्फ पर खेलने के लिए बढ़िया जूते चाहिए। उम्दा स्टिक की ज़रूरत पड़ती है। कही कोई गोलकीपर बनना चाहे तो उसकी फुल किट तो काफी महगी आती है। ऐसे में गरीब बच्चो ने इसे खेलना छोड़ दिया है। निचले स्तर पर हाँकी के दान तोड़ने का कारण यही है। रही- सही कसर क्रिकेट ने पूरी कर दी। मौजूदा समय में जो खिलाडी खेल रहे है उनसे अब ज्यादा उम्मीद बेकार है। अच्छा यही होगा की नयी पौध तयार की जाये।
अगर भारतीय हाँकी को बचाने के लिए अब कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो इसका वजूद ख़त्म हो जायेगा।
अगर हमने इसको बचा लिया और दुनिया में फिर से अपना सिक्का जमाया तो यह उस व्यक्ति के लिए श्रधांजलि होगी जिसने भारतीय हाँकी को एक नए मुकाम पर पहुचाया था।
।।।।।।जय हिंद जय भारत।।।।।।
लन्दन ओल्य्म्पिक के बाद जब भारतीय टीम जब स्वदेश लौटी तो उन्हें हवाई अड्डे के पिछले दरवाजे से बहार ले जाया गया। दिलचस्प बात यह है की उसी दिन ओल्य्म्पिक में रजत जीतने वाले सुशील कुमार और कांस्य जीतने वाले योगेश्वर भी लौटे थे। उन दोनों का एयरपोर्ट पर जोरदार तरीके स्वागत हुआ था। मैंने कभी सोचा नहीं था की ओल्य्म्पिक खेल इतिहास में आठ स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय हाँकी टीम को अब पिछले दरवाजे की शरण लेनी पड़ेगी। लन्दन ओल्य्म्पिक से पहले सभी को बहुत बरोसा था, लेकिन वहा ऐसा लगा की मानो टीम ओल्य्म्पिक के लायक ही नहीं थी। पहले मैच में मजबूत होलैंड को टक्कर दी, लेकिन इसके बाद पिछड़ते और घिसटते चले गए और अंत में हमारा कारवा 12वे स्थान पे जा के रुका। ऐसा नहीं था की टीम में कोई अनुभव की कमी थी। कप्तान भरत छेत्री अब यह कह रहे है कि भारतीय टीम ओल्य्म्पिक में दूसरी टीमों की तुलना में बेहद कमजोर थी, लेकिन क्या इसका एहसास उन्हें ओल्य्म्पिक शुरु होने से पहले नहीं था। बहाने और भी बनाये जा रहे है।
लन्दन तो अब गुजर गया और रियो से पहले बहुत कुछ करना बाकी है, लेकिन अभी भी ज़मीनी स्तर पर किसी बड़े बदलाव की संभावना कही नज़र नहीं आती। अभी से रोड टू रियो की बाते होने लगी है, लेकिन भारतीय हाँकी अब एक ऐसी जगह आ गयी है जंहा से रिवाइवल आसान नहीं होगा।
हाँकी में भारत का भी एक दौर था जब अंग्रेज हमारे पीछे भगा करते थे लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे की आज हम उनके पीछे भाग रहे है और वो हमसे खेलना नहीं चाहते। हाँकी का उज्वल भविष्य तभी संभव है जब गहराई से चीजों को समझा जाये, और इसमें सबसे बड़ी बात है की खिलाडियों को एहसास कराना होगा कि वे देश के लिए खेल रहे है।
विदेशी कोच को टीम के साथ जोड़कर भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि आधे खिलाडियों को तो भाषाई दिक्कत है। वो कहते कुछ होंगे खिलाडी समझते कुछ होंगे। सभी विदेशी कोच चाहे वो ब्रासा हो या नोब्स कोई भी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पता क्योंकि उनकी हिम्मत जवाब दे जाती है। लन्दन ओल्य्म्पिक्स का टिकट दिलाने के बाद नोब्स से काफी उम्मीद बढ़ गयी थी। लेकिन ओल्य्म्पिक्स में भारतीय टीम की दुर्गति देखकर नोब्स का भी मन उखड गया। जब-जब विदेशी कोच को भारतीय हाँकी के भले के लिए बुलाया जाता है तब-तब हाँकी के धुरंधर खिलाडी इसका विरोध करते है। उनका मानना है की भारतीय हाँकी का भला भारतीय कोच ही कर सकता है। ये भी सच है की भारतीय कोच भी किसी मायने में कम नहीं है। इस बारे में सोचने की ज़रूरत है।
बी0पी0 गोविंदा (ओल्य्म्पियन, रास्ट्रीय चयनकर्ता) के अनुसार,
भले ही लाख बनाये जाये, हम हाँकी में बहुत पिछड़ गए है। इतना पिछड़ गए है कि न जाने कितना समय लगेगा। हाँकी की ये दशा 2-3 सालो मैं नहीं हुई है। हालत तो 1976 से ही ख़राब होनी शुरू हुई थी। जब हाँकी घास से एस्ट्रोटर्फ पर पहुची थी। उस समय भारत में एक भी एस्ट्रोटर्फ नहीं था। भारत में एस्ट्रोटर्फ लगना और उस पर ट्रेनिंग करने में इतना वक़्त लग गया की यूरोपीय आगे हो गए। यह फैसला साल दर साल बढ़ता गया। एस्ट्रोटर्फ पर खेलने के लिए बढ़िया जूते चाहिए। उम्दा स्टिक की ज़रूरत पड़ती है। कही कोई गोलकीपर बनना चाहे तो उसकी फुल किट तो काफी महगी आती है। ऐसे में गरीब बच्चो ने इसे खेलना छोड़ दिया है। निचले स्तर पर हाँकी के दान तोड़ने का कारण यही है। रही- सही कसर क्रिकेट ने पूरी कर दी। मौजूदा समय में जो खिलाडी खेल रहे है उनसे अब ज्यादा उम्मीद बेकार है। अच्छा यही होगा की नयी पौध तयार की जाये।
अगर भारतीय हाँकी को बचाने के लिए अब कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो इसका वजूद ख़त्म हो जायेगा।
अगर हमने इसको बचा लिया और दुनिया में फिर से अपना सिक्का जमाया तो यह उस व्यक्ति के लिए श्रधांजलि होगी जिसने भारतीय हाँकी को एक नए मुकाम पर पहुचाया था।
।।।।।।जय हिंद जय भारत।।।।।।
very nice..
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